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पाँच जोड़ बाँसुरी

चन्द्रदेव सिंह

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5603
आईएसबीएन :81-263-0934-2

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प्रस्तुत है कुछ प्रमुख कवियों की कविताओं का संकलन...

Paanch Jor Baansuree

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पाँच-छह वर्ष पूर्व डॉ.नामवर सिंह ने नये कथाकार श्री अक्ष्योभेश्वरी प्रताप के अस्सी (वाराणसी) स्थित कमरे में एक गीत-संकलन की योजना दो गीतकारों श्री महेन्द्रशंकर और श्री चन्द्रदेव सिंह के सम्मुख प्रस्तुत की। उनका ख़याल था कि प्रयोगवाद और नयी कविता के हो-हल्ले में गीत-विधा की उपलब्धि को बुरी तरह नकारा गया है। इसीलिए सन् 1947 और उसके पश्चात् लिखे गये गीतों का एक ऐसा संकलन उपस्थित किया जाए तो इस अवधि की गीत-उपलब्धि को रेखांकित करने में समर्थ हो। संकलन की भूमिका लिखने का दायित्व अपने ऊपर लेते हुए नामवर जी ने सम्पादन का भार मुझ पर छोड़ दिया था और सहयोग के लिए महेन्द्रशंकर जी ने पूरी सहमति प्रकट की थी। निबन्धकार जो यहाँ संकलित हैं उनमें डॉ.भगवतशरण उपाध्याय तथा डॉ.‘बच्चन’ का चुनाव उसी क्षण हो गया था। संकलन का नाम ‘पाँच जोड़ बाँसुरी’ मेरे द्वारा प्रस्तावित होने पर एकमत से स्वीकृत मान लिया गया था।

यों आज संकलन के सहयोगी कवि-अकवि, मित्र-अमित्र, प्रशंसक-निन्दक बहुत बड़ी संख्या में हैं पर योजना की कहानी चार अदद साहित्यकार और एक अदद कमरा तक ही सीमित है। कथाकार अक्ष्योभेश्वरी प्रताप की रुचि योजना से अधिक चाय पिलाने में थी और उनके कमरे की दीवारों ने भी कोई उत्सुकता व्यक्त नहीं की। महेन्द्रशंकर जी ने हर सम्भव सहयोग देने का वादा हृदय से किया था और कुछ सीमा तक उनका सहयोग मिला भी किन्तु कलकत्ता-वाराणसी के बीच की दूरी और इतने लम्बे अन्तराल के कारण सम्पादक को अपने ही बल-भरोसे से वह सब करना पड़ा जो यहाँ प्रस्तुत है।
इन पाँच छह वर्षों की अवधि में नामवर जी का विशेष स्मरणीय कार्य यह रहा कि योजना-गोष्ठी के पश्चात् उन्होंने काष्ठमौन को अपना लिया जो आज तक टूट नहीं पाया है। मैं आज भी यह समझ पाने में असमर्थ हूँ कि आखिर योजना बनाते हुए जो ललक, जो सजगता नामवर जी में थी व क्यों और कैसे गायब हो गयी। यदि नयी कविता से अलग हटकर गीत जैसी ‘नॉन-सीरियस’ विधा के विषय में कुछ लिखने में उन्हें झिझक है तो आखिर योजना तो उन्हीं के द्वारा प्रस्तुत की गयी थी और क्या तब उनका मूड कुछ और था वैसे सच यह भी है कि नामवर जी ने भूमिका लिखने से ‘नहीं’ कभी नहीं किया परन्तु अनेक पत्रों, अनेक वादों, आश्वासनों के बावजूद वह नहीं किया जो उनके जिम्मे था और जिसका दायित्व उन्होंने स्वयं ऊपर ओढ़ लिया था।

नामवर जी की एक धारणा का पता मुझे अच्छी तरह है कि ‘कहने से जबान नहीं कट जाती लेकिन लिखने से हाथ कट जाता है’ पर तब योजना के मूल में कौन-सा उद्देश्य था ? बहरहाल इतनी कैफियत जरूरी थी।
प्रस्तुत संकलन ‘पाँच जोड़ बाँसुरी’ सन् 1947 से 67 के बीच लिखित-प्रकाशित ऐसे गीतों का समूह है जिसमें सम्बन्धित अवधि के व्यक्ति-मन का, मनःस्थिति का एक सहज परिचय मिल जाए। महाप्राण ‘निराला’ से साठोत्तरी कवि नरेश सक्सेना तक चालीस ऐसे गीतकार संकलित हैं जिन्हे पाँच पीढ़ियों का प्रतिनिधि माना जा सकता है। ‘निराला’ जी के पश्चात् डॉ.‘बच्चन’ श्री ठाकुरप्रसाद सिंह डॉ.केदारनाथ सिंह और ओम प्रभाकर ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपनी समसामयिक पीढ़ी को प्रेरित ही नहीं किया है वरन् उसका प्रतिनिधित्व करने की क्षमता भी इनमें रही है।
‘पाँच जोड़ बाँसुरी’ ‘निराला’, ‘बच्चन’, ठाकुरप्रसाद सिंह, केदारनाथ सिंह और ओम प्रभाकर की पाँच पीढ़ियों का ऐसा गीत-लेखा उपस्थित करना ही अपना लक्ष्य मानती है जिसे युग-जीवन के सन्दर्भ में जाँचा-परखा जा सके।
अन्त में एक निवेदन और—प्रस्तुत संकलन अपनी प्रारम्भिक योजना तक ही सीमित नहीं रह सका है क्योंकि वैसा हो पाना न तो सम्भव था और न तो आवश्यक। अतः योजना की सफलता डॉ.नामवर सिंह की है और उसकी कमजोरियों के लिए उत्तरदायी केवल सम्पादक है, और कोई नहीं।

गीत : प्रयोग

नये प्रयोग की चेतना का प्रयास यदि किसी आन्दोलन की संज्ञा प्राप्त कर ले तो इसमें आश्चर्य का होना ही आश्चर्य का विषय है। ‘नया गीत’ या ‘नवगीत’ आधुनिक जीवन-बोध की एक ऐसी ही अभिव्यक्ति है जिसे युगीन स्थिति-सन्दर्भ में बड़ी ही स्पष्टता-सहजता के साथ पहचाना जा सकता है।
जब कविवर श्री सुमित्रानन्दन पन्त ने ‘वाणी मेरी, चाहिए तुम्हें क्या अलंकार’ के द्वारा काव्य की प्रेषणीयता के लिए अलंकारों की निरर्थकता प्रकट की थी। उसी अवधि में महाकवि ‘निराला’ ने ‘छोड़ छन्दों की छोटी राह—’ अनुभूतियों के स्वाभाविक अभिव्यंजन की ओर संकेत किया था। ‘नवगीत’ इसी दूसरे प्रयोग-प्रयास की परम्परा का एक मोड़ है।
छायावाद की प्रचलित लीक को अनुपयोगी अनावश्यक और भावाभियक्ति के मार्ग में बाधक सिद्ध करते हुए निराला जी ने अपने परवर्ती गीतों में अनेक ऐसे प्रयोग किये हैं जो शिल्प और छन्द की ही दृष्टि से नहीं, अनुभूति, भाषा और प्रतीक के रूप में भी उन्हीं के पूर्ववर्ती गीतों की तुलना में एकदम अलग, नये एवं विशेष प्रभावशाली लगते हैं। छायावादोत्तर गीतकारों ने निराला जी के परवर्ती गीतों से प्रेरणा लेकर हिन्दी गीत-विधा को एक नये आकार, एक नये रूप में प्रस्तुत किया। युगीन परिवर्तन और बदले हुए राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय परिवेश ने इस पीढ़ी के गीतकारों की भाषा तथा शिल्प को भी अप्रभावित नहीं छोड़ा। छायावाद की कल्पना-बहुलता से अलग परवर्ती गीत जीवन के सुख-दुःख, हर्ष-विषाद के अधिक निकट हैं और इसीलिए विशेष स्वाभाविक तथा प्रेरक सिद्ध हुए।

‘निराला’ जी के पश्चात् गीत-काव्य के क्षेत्र में विशेष प्रयोगकर्ता के रूप में डॉ.हरिवंश राय ‘बच्चन’ का उल्लेख किया जा सकता है। ‘बच्चन’ के गीतकार ने काव्य को भाषा की दृष्टि से जिन्दगी के नजदीक लाने का ही प्रयास नहीं किया, बल्कि टेक, छन्द और अनुभूति की दृष्टि से भी काव्य को एक नयी दिशा की ओर उन्मुख किया। छायावाद के ‘प्रिय’, ‘प्रियतम’, ‘सजनी’ और ‘साजन’ के सम्बोधन ‘बच्चन’ के निकट ‘साथी’ के रूप में बदल गये। सम्बोधन का यह परिवर्तन तत्कालीन मनःस्थिति के परिवर्तन का स्वतः स्पष्ट परिचय प्रस्तुत करने में सक्षम है। ‘बच्चन’ की पीढ़ी के ही दूसरे गीतकारों—नरेन्द्र शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेरबहादुर सिंह, अज्ञेय प्रभृति ने गीत को एक नया धरातल और नयी भाव-भूमि दी। आगे चलकर गिरिजाकुमार माथुर ने तो गीत को लोक-गन्ध से सुरभित कर भाव क्षेत्र में एक नया द्वार खोल दिया। नये फूलों, नये रंगो की नयी पंखुड़ियों से सजाकर माथुर ने गीत को सतरंगी बना दिया।

‘बच्चन’ के गीत जब वैयक्तिक हर्ष-विषाद को प्रकट कर रहे थे, दूसरे गीतकार गीत को गाँव के खेतों और लोक जीवन के निकट ले जाने का प्रयास कर रहे थे। ‘बच्चन’ के गीत ‘निशा-निमन्त्रण, एकान्त-संगीत और आकुल अन्तर’ से निकलकर भी सतरंगिनी के चमत्कार में ऐसे उलझ गये थे कि शयनागार के बाहर का महौल उनके लिए उपेक्षा का विषय बन गया था। और तब भी ‘हुंकार’ के अनवरत संघर्ष से दुःखते हुए गले को राहत देने के लिए ‘दिनकर’ का गीतकार ‘रसवन्ती’ में कभी विवाह का गीत गुनगुना रहा था और कभी किसी ग्राम-प्रिया को आमन्त्रित करने के लिए ‘आल्हा’ की पंक्तियाँ दुहरा रहा था, जिसे सुनती हुई प्रियतमा नीम की छाया में खड़ी-खड़ी भीतर-ही-भीतर उफन रही थी :

‘‘दो प्रेमी हैं यहाँ, एक जब
बड़े साँझ आल्हा गाता है;
पहला स्वर उसकी राधा को
घर से यहाँ खींच लाता है।
चोरी-चोरी खड़ी नीम की
छाया में छिपकर सुनती है;
‘हुई न क्यों मैं कड़ी गीत की-
विधना’, यों मन में गुनती है।
वह गाता, पर किसी वेग से
फूल रहा इसका अन्तर है।

लोक-गन्धी गीतों की चेतना विशेष रूप से अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, गिरिजाकुमार माथुर, शमशेरबहादुर सिंह, नागार्जुन और त्रिलोचन में दिखलाई दी थी, किन्तु वह आखिर हवा के झोंकों को कब तक सह पाती। लोक-चेतना की चरम परिणति तो ठाकुरप्रसाद सिंह के ‘वंशी और मादल’ तथा ‘बच्चन’ के लोकधुनों पर आधारित गीतों में दिखलाई पड़ती है।
इसी बीच प्रयोगवाद और तदन्तर नयी कविता के तुमुलनाद में गीत का स्वर मद्धिम पड़ गया। नयी कविता के समर्थकों ने गीत पर इसलिए भी बार-बार आक्रमण कर उसे पुराना, घिसा-पिटा और पिछड़ा कहा ताकि हिन्दी कविता को नयी दृष्टि दे सकें जो वैज्ञानिक चेतना को आत्मसात् कर सकें, ताकि छन्द, तुक, गेयता, रागात्मकता से कविता को मुक्ति दिला सकें जिससे वह आधुनिक जीवन-बोध को यथार्थ रूप में व्यक्त करने की शक्ति से भरपूर हो उठे। आधुनिक जीवन-बोध की उपलब्धि अनास्था, कुण्ठा, पराजय, विघटन का प्रकटीकरण गीत के माध्यम से सम्भव हो सकेगा। यह तथ्य नयी कविता के लिए अनजाना ही नहीं, निरर्थक भी था। एक ओर तो आधुनिक जीवन की जटिलता काव्य के लिए नयी भाषा, नयी शब्दावली के अन्वेषण में रत थी और दूसरी ओर हिन्दी गीत ‘मंचगान’ बनकर रह गया था। गीत, चमत्कारिक शब्दावली में कण्ठ-माधुर्य के अतिरिक्त और भी कुछ है, हो सकता है—की चिन्ता ‘बच्चन’ की परम्परा के गीत-कवियों को एकदम नहीं थी। अब गीत ‘निशा-निमन्त्रण’ तथा ‘मिलन-यामिनी’ के गीतों की तरह कुछेक पदों में एक मनःस्थिति को प्रकट कर देने का साधन नहीं था बल्कि नगरिया डुबोयी, गगरिया डुबोयी, बजरिया डुबोयी, बदरिया डुबोयी, अँचरिया डुबोयी, किनरिया डुबोयी के तुकों में तब तक डुबाते जाने का विश्वासी था जब तक स्वयं न डूब जाए ! और गीत डूब गया होता यदि ठाकुरप्रसाद सिंह, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती, रामदरश मिश्र, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना प्रभृति की पीढ़ी ने गीत के बाह्य और अन्तर को नयी संजीवनी चेतना से समृद्ध न किया होता। यहीं से गीत ने नयी कविता के समानान्तर नये बोध और नवीन जीवनानुभव को नये ढंग से प्रकट करने का प्रयास किया है। ‘वंशी और मादल’ के गीत सन्थाल जीवन के पिछड़ेपन को जिस नवीनता के साथ प्रकट करने में सक्षम हैं, उसे कई दृष्टियों से विशिष्ट एवं प्रशंसनीय माना जाएगा। ‘वंशी और मादल’ ने परवर्ती गीतकारों को जितना अधिक प्रभावित और प्रेरित किया है उसकी तुलना में कोई दूसरा नाम सामने नहीं आता। इतना होते हुए भी नयी कविता के रचनाकारों में दो ऐसे समूह बन गये हैं जिन्हें गीत के विकास में बाधक भले न कहें, सहयोगी नहीं माना जा सकता है। एक वर्ग यह मानने को आज भी तैयार नहीं कि गीत के फॉर्म में नये युग-बोध को प्रकट किया जा सकता है। दूसरा वर्ग गीत-विद्या में होने वाले प्रयोग की मौखिक प्रशंसा तो करता है लेकिन खुलकर सामने आने में इसलिए डरता है कि गीत का प्रशंसक कहलाते ही कहीं उसके बोध को पुराना और वासी करार न दे दिया जाए।

सन् 1950 से ’60 के बीच लिखे गये गीतों में जहाँ एक ओर विशुद्ध साहित्यिक दृष्टि से आज के जीवन-यथार्थ को व्यक्त करने की क्षमता है; वहीं दूसरी ओर ऐसे गीतों की संख्या भी काफी अधिक है जिनका लक्ष्य ‘गोष्ठियों’ नहीं ‘सम्मेलनों’ में गुदगुदाना-भर है।‘गोष्ठी-गीतकार’ ने गीत को युग-जीवन का वाहक बनाने का, जीवन-स्थितियों को प्रकाशित करने का साधन बनाने का प्रयत्न किया है तो ‘सम्मेलन-गायकों’ ने गीत को ‘कितनी दूर तोरी काशी रे बाबा’ तथा ‘आज काशी में मोरा कोई खरीददार नहीं’ की तर्ज पर जन-जन तक पहुँचाने का ठेका ले लिया है—ऐसा प्रयास प्रदर्शित किया है। इस बीच हिन्दी गीत को केवल उपेक्षा ही उपलब्धि के रूप में मिल सकी है। नयी चेतना से समन्वित प्रशंसक गीत के अस्तित्व को स्वीकारने में भयभीत रहा है कि वह ऐसी ‘नॉन सीरियस’ विधा को महत्त्व देने का दोष अपने माथे क्यों ले तो दूसरी ओर सम्मेलन-गायक इसलिए गीतों से नाक-भौं सिकोड़ते रहे हैं कि कहीं उनका बाजार दूसरों के हाथ न लग जाए और उन्हें अपनी दुकान न बढ़ानी पड़ जाए। कुछ गीतकार बीच की स्थिति के भी रहे हैं जो नवीनता का मोह कहें, अथवा युग-बोध—गीतों में प्रयोग भी करते रहे हैं और साथ ही सम्मेलनों को दृष्टि में रखकर ‘गुडविल’ को ध्यान में रखते हुए हलके-फुलके चिपचिपाहटों से भरे, बीस-पच्चीस पदों के गीत भी लिखते रहे हैं। ये आज दोनों खेमों में चर्चित होने को प्रयत्नशील हैं। इस ‘सम्मेलनी’ वाह-वाही और जन-प्रियता ने भी गीत को विकृत और सतही बनाने में अभूतपूर्व सहयोग दिया है। ऐसे गीतकारों के एकमात्र आधार-स्तम्भ डॉ.‘बच्चन’ रहे हैं, जिनकी लोकप्रियता से सन्तोष प्राप्त कर ये समझते रहे हैं कि एक-न-एक दिन ये युग और जीवन को बदल कर ही दम लेंगे। अब इन ऐसों को कौन समझाए कि ‘बच्चन’ ने गीत लिखे थे, यदि वे सम्मेलनों में भी चल गये तो इसका श्रेय ‘बच्चन’ की प्रस्तुति और अभिव्यक्ति-कुशलता को है। उन्होंने कब सोचा था कि उन्हें अपने गीतों के अखाड़े जमाने हैं। अनुकरण-कर्ताओं ने ‘बच्चन’ से स्वर और छन्द, लय और गति-भंगिमा के साथ गीत-चेतना और कथ्य भी लिया होता तो सम्भवतः ऐसे परिणाम सामने नहीं आते।

पिछले दशक के गीतकारों ने जहाँ गीत को छन्दों की विविधता, नया शिल्प, नये बिम्ब दिये हैं वहीं तमाम शोरगुल और छीना-झपटी के बीच वे आश्वस्त भी रहे हैं कि उनका प्रयास अर्थहीन नहीं है। केदारनाथ सिंह, रवीन्द्र भ्रमर, चन्द्रदेव सिंह, महेन्द्र शंकर, राजेन्द्र किशोर, परमानन्द श्रीवास्तव, रामसेवक श्रीवास्तव, उमाकान्त मालवीय, रामनरेश पाठक, श्यामसुन्दर घोष प्रभृति ने गीत को किसी मोहवश अथवा परम्परागत संस्कारवश नहीं अपनाया है बल्कि गीत को नयी कविता का समानधर्मा सिद्ध करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए विधा का उतना महत्त्व नहीं है जितना भीतर की-अर्ज-का। इसीलिए आज गीत न तो तुकों पर निर्भर हैं न टेक और न किसी बँधी-बँधायी लीक पर। आज का गीतकार मात्र कथ्य और मनःस्थिति के प्रति सतर्क है। उसे यदि तुक और छन्द निरर्थक तथा भावाभिव्यक्ति के मार्ग में बाधक लगते हैं तो वह उनके निर्वाह के लिए अपने भावों की हत्या करने का पक्षपाती नहीं है। इसीलिए आज केवल तुक और टेक के बन्धन ही ढीले नहीं हो गये हैं वरन् गीत से परम्परागत गेयता तथा संगीतात्मकता के तत्त्व भी आवश्यकतानुसार गायब हो चले हैं।—गीत एक निश्चित साँचे में ढली हुई रचना-वाली परिभाषा गीतकारों की नयी पीढ़ी के लिए अब मान्य नहीं रह गयी है।
‘निराला’ से प्रारम्भ होने वाली गीत की वही परम्परा सन् ’60 के पश्चात् नरेश सक्सेना तक निरन्तर परिवर्तित होती हुई, सँवरती-सुधरती एक निश्चित लक्ष्य की ओर अग्रसर है। साठोत्तरी गीतकारों की रचनाएँ तो नयी कविता के समानान्तर ही नहीं बल्कि अनेक अर्थों में उसके आगे की मंजिल का पता दे रही हैं। ओम प्रभाकर, देवेन्द्रकुमार, नईम, शलभ श्रीरामसिंह, ब्रजराज तिवारी, माहेश्वर तिवारी, नरेश सक्सेना के गीत आज की युग-चेतना का बड़ा ही स्पष्ट चित्र उपस्थित कर रहे हैं। यह अलग प्रश्न है कि इन गीतकारों ने अनेक नये कवियों की तरह ‘नंगेपन’ को अपना लक्ष्य नहीं माना है। आज की पीढ़ी, यदि जीवन ‘ऐब्सर्ड’ है तो उसे उसी रूप में चित्रित करने में विश्वास करती है किन्तु ऐब्सर्डिटी को जीवन का लक्ष्य बनाने के पक्ष में नहीं है जिसे फैशन के लिए नयी कविता ने पूरी तरह अपना लिया है।

सच तो यह है कि नया गीतकार न तो छायावादी महामानव की खोज में है और न नयी कविता के लघुमानव से ही अपना मानसिक सामंजस्य स्थापित कर पाता है। वह तो युग-जीवन के एक सहभोक्ता और संवेदनशील व्यक्ति का ही रोल अदा करना अपने कवि-कर्म की इति मानता है।
सन् ’47 से ’67 के बीच लिखे गये गीत को किसी एक नाम, संज्ञा से अभिहित कर पाना सम्भव नहीं रह गया है। गीत ने लोक-जीवन और आंचलिकता से प्रेरणा ली है, गीत ने लोक-धुनों को भी अपनाया है, गीत ने मानवीय संवेदना को भी अभिव्यक्ति दी है, पर वहीं गीत आज केवल कतिपय सीमाओं में बाँधा जा सके, यह न तो उचित है और न यथार्थ। छायावाद और प्रगतिवाद के प्रभाव-क्षेत्र से अलग होने की जो छटपटाहट और तड़प कभी नये कवियों में थी वही तड़प और विकलता गीतकारों में भी रही है। इसीलिए आज का गीत न तो लोक-जीवन से विमुख है न नागरिक जीवन से उपेक्षित न तो राष्ट्र की भौगोलिक सीमा में बद्ध है और न ही अन्तरराष्ट्रीय स्थितियों से तटस्थ। नया गीतकार अपने परिवेश के प्रति सजग तथा अस्तित्व के प्रति व्यापक रूप से सतर्क है। परिवेश और युग-जीवन के प्रति उसकी यही सजगता उसके स्वर की नवीनता के लिए उत्तरदायी है।

सन् ’60 के बाद का नया कवि जब शब्दों की निरर्थकता सिद्ध करते हुए, एक कुण्ठाग्रस्त असन्तोष तथा पीड़ा को प्रकट करते हुए कहता है :
‘‘पर आजकल मैं उस विश्वास की तलाश में हूँ
जो इस शब्द से परे है
उस विश्वास की तलाश में
मैं अपने झूठ को खोजता हूँ
शायद तब
अपमान के बीच मैं अपने को उस तरह बिठा सकूँ।’’

-गंगाप्रसाद विमल

और जब दूसरा कवि समय की व्यर्थता को चाहे-अनचाहे अखबारी बातों में भूलने का प्रयास करता है :

‘‘समय टँगा रहता है हमारे बीच
और हम अपनी अनन्त सीमाओं में कैद
बैठे रहते हैं चुपचाप और रास्ते काटते हैं
अखबारी बातों में।’’

-जगदीश चतुर्वेदी

तब क्या दोनों की अभिव्यक्ति अपनी परिवेश-सजगता का ही परिचय नहीं देती ? यहीं नया गीतकार जब—

‘‘सारे दिन पढ़ते अखबार
बीत गया यह भी इतवार

-माहेश्वर तिवारी

या
‘‘खिड़की ने, आँगन ने
फूलों ने, सावन ने बार-बार पूछा
किसमें देती उत्तर
केंचुल-से छोड़ दिये शब्दों ने अर्थ
खाली पड़े प्राण-हीन अक्षर
तुम तो भाषा को भी कर गये बदनाम।’’

-चन्द्रदेव सिंह

व्यक्त करता है तब क्या वह इसलिए पुराना और बासी है कि इसे गीत की संज्ञा प्राप्त हैं ? यह गीत-अगीत का भेद न तो काव्य-साहित्य के लिए प्रयोजनीय है और न आवश्यक। नया गीतकार तो इसी भेद को मिटाकर केवल अनुभूति की सूक्ष्मता और अभिव्यक्ति की कुशलता पर बल देना चाहता है।
जीवन की निरर्थकता और बीते दिनों की उपलब्धि पर विचार करता हुआ जब नया कवि गुमसुम-सा सोचने लगता है—

‘‘धरे हथेली गाल पर
सोच रहा हूँ कल की बातें—गये वर्ष की कुछ तसवीरें
झूल रहीं दीवाल पर।’’

-शलभ

और तब यदि उसे अपना जीवन बूढ़े, पुंसत्वहीन सूरज के समान लगने लगे और तब भी उसे जीवन को इसी नियति के साथ बाँधे रखना ही पड़े तो क्या उसकी यह अभिव्यक्ति अस्वाभाविक है :

‘‘उठ गये हिलते हुए—
रंगीन कपड़े सूखते
(अपाहिज हैं छत-मुँडेरें)
एक स्लेटी सशंकित आवाज
आने लगी सहसा दूर से
चलें, अब तो पहाड़ी—उस पार
बूढ़े सूर्य बनकर ढलें।

-ओम प्रभाकर

क्या आज की यान्त्रिक जिन्दगी छत और मुँडेरों की तरह अपाहिज नहीं हो गयी है; जिस पर चाहे जैसी चीजें पसारकर सुखा लें और फिर एकरसता की नियति से बँधी जिन्दगी यदि समय—दिन-रात-की आवाज से अंकित हो उठे तो इसमें दोष किसका है ?
और ऐसे में दिन का, तारीखों, कैलेण्डरों का क्या महत्त्व है :

‘‘रीता का रीता मन रह गया
नये वर्ष के दिन भी।
सुबह की हवाओं ने
आपस में बाँट लीं बधाइयाँ
मेरे संग रह गयीं
केवल तनहाइयाँ
दिन-ढलते धूप-किरन, अंग-अंग
तोड़ कर चली गयी।

-ब्रजराज तिवारी ‘अधीर’

उपर्युक्त उद्धरणों में जगदीश चतुर्वेदी और गंगाप्रसाद विमल की कुछेक पंक्तियाँ इसलिए दी गयी हैं कि इनका नाम अकविता के पक्षधरों में लिया जा रहा है। इन्हीं अकविताकारों के साथ कुछेक गीतकारों के भाव-विचार भी हैं जिनसे अनुभूति, मनःस्थिति और बोध का सामंजस्य कहाँ तक दिखलाई पड़ता है—इसका सहज निर्णय साधारण काव्य-पाठक के लिए भी दुरूह नहीं है।
नव गीतकार के लिए गीत और अगीत (कविता) दो चीजें नहीं हैं। यह तो इस रूप-भेद को महत्त्व नहीं देता। अपनी जिस मनःस्थिति, जिस कथ्य को वह गीत ‘फॉर्म’ में यथोचित ढंग से व्यक्त कर सकता है, उसके लिए गीत से विरोध मात्र आग्रहवश विरोध, निरर्थक और अनावश्यक मानता है। यही कारण है कि ’55 ई. के आसपास से जिन कवियों ने गीत को अपनाया है, वे नयी कविता के क्षेत्र में भी अपना एक विशिष्ट महत्त्व रखते हैं।
आज के बोध को, जीवन की कुरूपता एवं असमर्थता पराजय को व्यक्त करता हुआ गीतकार जब स्वीकार करता है :

‘‘ठकुरसुहाती जुड़ी जमात,
यहाँ यह मजा
मुँहदेखी, यदि न करो बात
तो मिले सजा
सिर्फ बधिर, अन्धे गूँगों—
के लिए जगह।
गुजर गया एक और दिन—
रोज की तरह।’’

-उमाकान्त मालवीय

तब केवल यही नहीं, कि वह एक नितान्त व्यक्तिगत स्थिति का चित्रण कर रहा है वरन् सम्पूर्ण युग की गतिविधियों को नंगा कर विकृत सत्य को भी सामने रखने की क्षमता से भरपूर है, इसका परिचय भी दे रहा है। इसी तथ्य को दूसरे शब्दों में :
‘‘क्या होंगे लूले संकल्प ?
और बहरे विश्वास ?
और चमकीले आश्वासन ?

-चन्द्रदेव सिंह

दूसरा गीतकार प्रकट कर; युग-मानस का एक यथार्थ चित्र ही तो पाठक के सम्मुख रखने का प्रयास कर रहा है। अब गीत, जहाँ छन्द और लय, तुक और टेक के वैविध्य को आग्रहवश अपनाने का पक्षपाती नहीं रह गया है, वहाँ आज के गीतकार के सम्मुख मात्र सीमित भाव-सम्पदा ही नहीं है। जीवन और जगत् की प्रत्येक अनुभूति, जो उसे प्रेरित-प्रभावित करती है, गीत-कविता का स्वरूप प्राप्त कर सकती है। आज के अनास्था और घुटन-भरे जीवन में भी आस्था की एक किरन, यदि उसे दीख जाती है तो वह उस आस्था के प्रकाशन से इसलिए मुँह नहीं मोड़ लेता कि दूसरे उसके बोध को पिछड़ा हुआ करार दे देंगे। हाँ, अनेक प्रश्नों के चक्रव्यूह में घिरे होने का अहसास भी वह अस्वाभाविक नहीं मानता :

‘‘खोलें तो कौन-सी दिशा खोलें।
इतने सारे सवाल एक साथ
किसको छोड़ें, किसका हो लें।

-नीलम सिंह

यह अलग प्रश्न है कि युगीन स्थितियों ने उसे परम्परा के संस्कारों से अलग हटाकर एक ऐसे मोड़ पर ला दिया है जहाँ सारी संवेदनाएँ, वर्तमान जीवन के परिप्रेक्ष्य में खोखली और प्रवंचना बनकर रह गयी हैं। आज का मानस यदि शब्दों संकल्पों, वादों, आश्वासनों को शिष्टाचार और धोखा के अतिरिक्त कुछ और मानने के तैयार नहीं है—तो इस सत्य को स्वीकारने में हिचक कैसी ? आज के बनते-मिटते सम्बन्धों का अस्तित्व क्या है ?

‘‘अधरस्ते छूट गये जो प्यारे मित्र
प्याले में जब कभी तिरे उनके चित्र
दरवाजा उढ़का कर
हाते को पार कर
नाले में कागज की कुछ नावें छोड़ना
कुछ हिसाब जोड़ना।’’

-नीलम सिंह

सन् 1947 से ’67 तक की गीत-यात्रा के ये कतिपय मोड़ हैं, जिनकी ओर किसी भी यात्री की दृष्टि का मुड़ जाना स्वाभाविक है। पूरी यात्रा का हिसाब जोड़ना समालोचक का धर्म है।

निराला
तीन गीत

1

बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु !

यह घाट वही जिस पर हँस कर
वह कभी नहाती थी धँस कर
आँखें रह जाती थीं फँस कर
काँपते थे दोनों पाँव, बन्धु !

बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु !

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बन्धु !
बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु !

2

अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन-
सट नहीं रही है।

कहीं साँस लेते हो
घर-घर भर देते हो
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।

आभा फागुन की तन—
सट नहीं रही है।

पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल
कहीं पड़ी है उर में
मन्द गन्ध-पुष्प-माल
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।
अट नहीं रही है।

आभा फागुन की तन—
सट नहीं रही है।

3

आज मन पावन हुआ है।
जेठ में सावन हुआ है।

अभी तक दृग बन्द थे ये,
खुले उर के छन्द थे ये,
सजल होकर बन्द थे ये,
राम अहिरावण हुआ है।
आज मन पावन हुआ है।

कटा था जो पटा रह कर,
फटा था जो सटा रह कर,
डटा था जो हटा रह कर,
अचल था, धावन हुआ है।
जेठ में सावन हुआ है।
आज मन पावन हुआ है।

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